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Friday, August 10, 2012

कविता

ठन्डे सपने
- उमा सुबेदी


यह ठन्डी रात
काली रात
शून्यता पे विलिन रात
खुदको धुन्ध में लपेटकर
टकटकी आँखों से देखती हुई यह रात ।

बर्फ की ठंडी से सिकुडी हुई
रुग्ण सर्दी के बैसाखी के सहारे चलती हुई
यह जीर्ण बुढी रात
निश्वास लेती हुई वक्त के सिंढियों पे चढती जा रही है ।
लडखडाती हुई, गिरती हुई, सम्भलती हुई
कभी डुबती हुई, कभी उतरती हुई
बेमतलब लम्बी होती जा रही है
दम घुटते हुए आगे चली जा रही है ।

सागर के उस ओर से
मुस्कराता हुवा
चाँदविहीन आकाश उलाहने दे रहा है,
पर
यह काली रात
यह अकेली रात
मेरी हो सकी न आकाश की
हुई तो केवल तनहाईं की ।

मेरे ठंडे सपनों की ढाकीयां ढोकर
निरन्तर अकेली चल रही है
यह काली अँधियारी रात ।



(नेपाली से अनुवाद- सुमन पोखरेल)

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